लघुकथा: एक चाल Short Story: A Ploy
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"तुम्हारा ध्यान कहाँ है?"
गोल चेहरे वाले युवा ने, जिसने चेक शर्ट पहन रखी थी, अपने सामने बैठी ज्योति ने पूछा। मोहित की निगाहें बार-बार कहीं खो जाती थीं, वह तिरछी नज़रों से आस-पास ताकते लोगों को देख रहा था।
मोहित ने जवाब दिया, "कहीं नहीं... मैं तो तुमसे बात कर रहा हूँ।"
"अच्छा, तो तुमने अब अपनी आदत सुधार ली?" उसने आँखों की त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा।
"हाँ... तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं?" उसने धीमे से शराफ़त जताते हुए जवाब दिया।
"ठीक है, मैं वॉशरूम से आती हूँ। इसके बाद हम चलेंगे!" वह उठी और वॉशरूम की ओर बढ़ गई।
मोहित ने अपनी निगाहों से चारों ओर चेक किया और हौले से कॉफ़ी टेबल पर रखे अपने फ़ोन को फुर्ती से उठाया। उसे अनलॉक करके चालें लगाने लगा। पहली चाल दस... पचास... सौ... दो सौ... और तीन सौ की ओर बढ़ रही थी।
तभी उसे किसी की नज़दीकी महसूस हुई। मुड़कर देखा तो ज्योति खड़ी थी। वह कब लौटी, उसे कुछ पता नहीं चला!
बड़ी-बड़ी आँखों पर त्योरियाँ चढ़ी थीं। गुस्से से चेहरे का रंग लाल होने लगा। वह उसके नज़दीक आने लगी। उसके बदले हुए स्वरूप को देखकर वह अपनी जगह से खड़ा हो गया।
"मैं तो बस चेक कर रहा था..!" मोहित उसे दिलासा देने लगा, लेकिन वह कुछ नहीं सुनती। आँखों में आँखें डालकर एक झन्नाटेदार उँगलियों की छाप उसके गालों पर छप गई। मोहित के कानों में एक तपन दौड़ गई। चेहरे पर दो आँसू सरकते हुए गालों से नीचे आए और गिर पड़े। वह खामोश रहा।
जब उसने गर्दन को ज्योति की ओर घुमाया तो पाया कि ज्योति का चेहरा सिकुड़ गया है। उसने हाथों से मुट्ठियाँ भींची और चेहरे की ओर करके, आँसू बहा रही थी। उसकी बढ़ती सिसकियाँ मोहित के दिल को घायल करती जा रही थीं। मोहित ने अपनी निगाहें नीचे ही रखीं।
काँपती आवाज़ में, "तुम अब जुआ (गैंबलिंग) खेलने के आदी हो गए हो!" आवाज़ ने उसे पीड़ा दी। वह स्थिर रहा। ज्योति के बाहर की ओर जाते उसके कदमों की आवाज़ कानों में पड़ी।
मोहित ने अपनी गर्दन ऊपर उठाई तो पाया कि चारों तरफ़ उपस्थित लोग उसे ही घूर रहे थे। सवालों की बौछार कर रहे थे। उसने अपने गाल को स्पर्श किया। जलन के साथ खिंचाव अब भी मौजूद था।
नथुनों को खींचते हुए, उसने अपना फ़ोन उठाया और कैफ़े से बाहर चला आया। बाइक से खुद के फ़्लैट पर आया तो पाया कि शून्यता पसरी पड़ी है। सामान बिखरा हुआ है। कुछ फ़्रेम टूटी हुई हैं। वातावरण में तनाव अब भी था। उसने दरवाज़ा लगाया।
वह जाकर सोफ़े पर बैठा और दुबारा आँसू बहाने लगा। चीखता, बड़बड़ाता, सिसकियाँ लेता... "माफ़ कर दे यार...! ज्योति। यार माफ़ कर दे। अब मैं जुआ नहीं खेलूंगा।" अगले आधे घंटे तक रूम इसी आवाज़ों का साक्षी बना रहा।
थककर वह पसर पड़ा। जब आँखें खुलीं तो सारी सच्चाई सामने थी। उसने अपने फ़ोन को एक ओर रखा। उठकर दीवार पर मार्कर से आज की तारीख लिखी। नीचे लिखा: "बस जो हुआ हो गया। अब से जुआ बंद!"
उसने फ़ोन में नई ऐप्स को इंस्टॉल किया।
अपने ऑफ़िस के काम को समय और ध्यान से पूरा करता।
उत्पादक किताबे बुक शेल्फ बेड के सिरहाने आने लगी।
जब भी ज़हन में जुआ दौड़ता, मोहित की उंगलियों किसी भी वेब सीरीज़ को देखने भागती। समय हवा हो जाता।
फ्लैट अब उद्धरण, सुधार, किताबों, प्रेरक पर्सनालिटी के चेहरों से भर आया।
दीवारें लड़ियों की लाल, पीली, नीली बल्बों से चमकती। लैवेंडर की महक पूरे फ्लैट को जीवित रखती। धूल या मिट्टी का स्थान ढूंढने से भी नहीं मिलता।
ऐसे में उसे फ़ोटोग्राफ़ी का शौक़ हुआ। उसे समझ आया कि फ़ोटो शब्दों से ज़्यादा बात करते हैं। फिर क्या था, उसने EMI पर एक कैमरा ख़रीदा। फ़ोटो खींचना, ग़लतियाँ सुधारना... जब भी समय मिलता मोहित इसी में खो जाता।
कई बार जब वह फ़्लैट का दरवाज़ा खोलता, उसे एक अनकही अनुपस्थिति खटकती, चुभती।
तब भी वह अपने सामने रखे कैमरे को देखकर खुश हो जाता। अकेलेपन में यही उसका सच्चा साथी था।
एक दिन उसने फ़ोटोग्राफ़ी की किताब में पढ़ा कि सुबह के समय में आप अपनी फ़ोटोज़ के लिए सही टाइम खोज सकते हैं।
अब वह रोज़ सुबह जल्दी से उठता, कैमरा लेकर सड़कों (Streets), लाइट्स, कुत्तों (Dogs) की तस्वीरें लेता। और उसी कैफ़े में कॉफ़ी पीता, जहाँ से ज्योति ने उसे अनकहा-सा अलविदा कहा था।
हड़बड़ाहट में कैफ़े का दरवाज़ा धकेलकर, "भैया, जल्दी से एक कॉफ़ी। बाहर कितनी ठंड है।"
"ठीक है, आप बैठिए!"
मोहित जल्दी से जाकर अपनी कुर्सी पर बैठा। थोड़ी देर में एक शख़्स उसे कॉफ़ी देने आता है। वह अपने पास आई कॉफ़ी को महसूस करता, पर उसका ध्यान अपने कैमरे में आज खींची तस्वीरों को देखने में था।
वह बिना उस ओर देखे बोला, "क्या हुआ? कॉफ़ी रखो ना।"
कोई जवाब नहीं।
न ही कॉफ़ी उसे दी गई।
उसने गर्दन उठाकर देखा तो अपने सामने कलाकारी कुर्ती और जींस पहले।आँखों में मासूमियत की चमक लिए ज्योति कॉफ़ी का कप लेकर खड़ी थी। वह अगले क्षणों तक खामोश रहा। एकाएक शब्द फूटे, "ज्योति, तुम बैठो ना।"
ज्योति ने उसे कप देते हुए, मद्धम, खुरदरी आवाज़ में पूछा, "कैसे हो...?"
ज़ोर देकर, "मैं अच्छा हूँ। और तुम?"
"मैं भी अच्छी हूँ।"
ज्योति की आँखें कुछ इधर-उधर खोजने लगीं। वह कभी अपने हाथों को टटोलती, कभी टेबल पर कुछ खरोंचती। "मुझे तुमसे कुछ कहना है...!"
मोहित का ध्यान उसकी ओर खींचा गया, "हाँ, बोलो ना!"
"क्या तुमने मुझे अब तक माफ़ नहीं किया?"
"कब का कर दिया..."
"तो मुझसे बोलते क्यों नहीं? कोई कॉल भी नहीं करते...!"
आवाज़ में भारीपन बढ़ा, गला रुंधने लगा। शब्द अटकने लगे। बिखरती आवाज़ में, "मुझे लगता है कि तुम मुझसे प्यार नहीं करते हो?" वह बिलख पड़ी।
उसके इस तरह से रोने पर मोहित उसके पास आया और कहा, "ऐसा कुछ नहीं है... अगर मैं तुम्हारी जगह होता, मैं भी यही करता।"
भीगती पलको से उसे मोहित को देखा। जो उसके कंधों को पकड़कर सहानभूति दे रहा।
"क्या तुम सच बोल रहे हो?"
"हाँ, देखो अब मैने अपनी आदत को भी सुधार लिया है। काम करता हूँ। मस्त रहता हूँ। आगे कहते हुए आवाज भारी हुई, जब भी फ्लैट का दरवाज़ा खोलता हूँ। तुम्हे वहाँ न पाकर मेरा दिल बैठ जाता है।"
"मैं भी तुम्हे याद करती हूँ।"
"ज्योति अब तो लौट आओ।"
उसने हामी में अपनी गर्दन हिलाई।
"बस एक बात...?"
"कौन सी?"
तुम कभी मेरा चेहरा लाल मत करना।
एक क्षण के बाद इस पर दोनों के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। आँखो में नई चमक लौट आई।
और धीरे-धीरे पुरानी बातें और पुराना प्यार लौट आया। दोनों साथ में कैफ़े से बाहर निकले।
(आप अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।)
उसने गर्दन उठाकर देखा तो अपने सामने कलाकारी कुर्ती और जींस पहले।आँखों में मासूमियत की चमक लिए ज्योति कॉफ़ी का कप लेकर खड़ी थी। वह अगले क्षणों तक खामोश रहा। एकाएक शब्द फूटे, "ज्योति, तुम बैठो ना।"
ज्योति ने उसे कप देते हुए, मद्धम, खुरदरी आवाज़ में पूछा, "कैसे हो...?"
ज़ोर देकर, "मैं अच्छा हूँ। और तुम?"
"मैं भी अच्छी हूँ।"
ज्योति की आँखें कुछ इधर-उधर खोजने लगीं। वह कभी अपने हाथों को टटोलती, कभी टेबल पर कुछ खरोंचती। "मुझे तुमसे कुछ कहना है...!"
मोहित का ध्यान उसकी ओर खींचा गया, "हाँ, बोलो ना!"
"क्या तुमने मुझे अब तक माफ़ नहीं किया?"
"कब का कर दिया..."
"तो मुझसे बोलते क्यों नहीं? कोई कॉल भी नहीं करते...!"
आवाज़ में भारीपन बढ़ा, गला रुंधने लगा। शब्द अटकने लगे। बिखरती आवाज़ में, "मुझे लगता है कि तुम मुझसे प्यार नहीं करते हो?" वह बिलख पड़ी।
उसके इस तरह से रोने पर मोहित उसके पास आया और कहा, "ऐसा कुछ नहीं है... अगर मैं तुम्हारी जगह होता, मैं भी यही करता।"
भीगती पलको से उसे मोहित को देखा। जो उसके कंधों को पकड़कर सहानभूति दे रहा।
"क्या तुम सच बोल रहे हो?"
"हाँ, देखो अब मैने अपनी आदत को भी सुधार लिया है। काम करता हूँ। मस्त रहता हूँ। आगे कहते हुए आवाज भारी हुई, जब भी फ्लैट का दरवाज़ा खोलता हूँ। तुम्हे वहाँ न पाकर मेरा दिल बैठ जाता है।"
"मैं भी तुम्हे याद करती हूँ।"
"ज्योति अब तो लौट आओ।"
उसने हामी में अपनी गर्दन हिलाई।
"बस एक बात...?"
"कौन सी?"
तुम कभी मेरा चेहरा लाल मत करना।
एक क्षण के बाद इस पर दोनों के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। आँखो में नई चमक लौट आई।
और धीरे-धीरे पुरानी बातें और पुराना प्यार लौट आया। दोनों साथ में कैफ़े से बाहर निकले।
(आप अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।)
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